शनिवार, 9 मार्च 2013

दुगलबिट्टा

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आपने पिछले लेख "चोपता: एक अधूरी यात्रा" की अगली पोस्ट "रुद्रप्रयाग" तो अवश्य ही पढ़ी होगी, जिसमें हरिद्वार से १६२ किमी० की दूरी तय करते हुए ०८ मार्च की शाम को रुद्रप्रयाग पहुँच कर होटल में एक कमरा किराये पर लेकर रात्रि विश्राम किया तथा अगले दिन ०९ मार्च को संगम स्नान करने के पश्चात् पुन: चोपता यात्रा जारी रखी, का वर्णन है। उसी क्रम को बढ़ाते हुए अब हम आपको आगे ले चलते हैं..……… 
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०९ मार्च की सुबह १० बजे हम लोग रुद्रप्रयाग से अपनी आगे की यात्रा के लिए चल पड़े । हम लोगो की कार पुन: रुद्रप्रयाग की सुरंग के नीचे से होती हुयी केदारनाथ रोड पैर चल रही थी, संगम स्थल पीछे छूट गया था, जो दूर से देखने पर सुंदर लग रहा था। रास्ता काफी मनोहारी था, चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और  उन पर उगे हरे-भरे दरख़्त मन को लुभा रहे थे। बायीं तरफ काफी नीचे मंदाकनी नदी अपने पूरे वेग के साथ बह रही थी, ऐसे मनभावन दृश्यों को देखते-देखते रुद्रप्रयाग से १९ किमी० दूर अगस्तमुनि तक आ गए । अगस्तमुनि मंदाकनी नदी के तट पर बसा एक  छोटा सा पहाड़ी क़स्बा है, जो समुद्रतल से १००० मीटर की ऊँचाई पर बसा है । यह अगस्त मुनि की तप स्थली रही है । यहाँ पर स्थित अगस्तेश्वर महादेव मन्दिर ऋषि अगस्तमुनि को समर्पित है । अगस्तमुनि से ही बर्फ से लदे पहाड़ों  चोटियां दिखनी शुरू हो जाती हैं । 

अगस्तमुनि से आगे चलने पर भी मंदाकनी नदी हमारे बायीं ओर थी, जो अब सड़क के समानांतर होकर चौड़ी सी घाटी में विपरीत दिशा की ओर प्रवाहित हो रही थी । मंदाकनी नदी के साथ-साथ चलते हुए हम लोग अगस्तमुनि से १७ किमी दूर कुण्ड आ पहुंचे । कुण्ड से एक रास्ता गुप्तकाशी, फाटा, सोनप्रयाग होते हुए गौरीकुण्ड तक जाता है, गौरीकुण्ड से ही १४ किमी० की कठिन पैदल यात्रा करके केदारनाथ धाम जाया जाता है  तथा दूसरा दायी तरफ का रास्ता ऊखीमठ, दुगलबिट्टा, चोपता होता हुआ गोपेश्वर, चमोली चला जाता है । हमे भी अब  "ऊखीमठ-गोपेश्वर" मार्ग पर ही चलना था । 

अत: हमारी कार भी कुण्ड से दायीं तरफ "ऊखीमठ-गोपेश्वर" मार्ग पर मुड़ गयी। कुण्ड से ऊखीमठ ०८ किमी० की दूरी पर था, रास्ता काफी चढ़ाई वाला था,  जो बहुत ही ख़राब था । कहीं-कहीं पर तो सड़क भूस्खलन के कारण बिल्कुल ध्वस्त हो गयी थी, जिसे किसी तरह मिट्टी, पत्थर आदि से बराबर कर बमुश्किल चलने योग्य बनाया गया था । किसी-किसी स्थान पर तो ऐसा लगता था कि अब कार आगे नही जा पायेगी । ड्राइवर प्रदीप काफी सावधानी से उस टूटी-फूटी सड़क से कार निकाल रहा था । हम लोग उस खतरनाक सड़क को पार कर लगभग १२.३० बजे समुद्रतल से १३२५ मीटर ऊपर स्थित ऊखीमठ पहुंच गए । ऊखीमठ में विगत वर्षों में कई बार बादल फटने की हृदयविदारक घटनाये हुई हैं, जिनमें जान-माल का बहुत नुकसान हुआ था। शीतकाल में भगवान केदारनाथ के कपाट बंद हो जाते है तब भगवान केदारनाथ की डोली ऊखीमठ में लायी जाती है और कपाट खुलने तक यहीं भगवान केदारनाथ की पूजा-अर्चना की जाती है । मंदिर के निकट कार को पार्क कर हम लोग मंदिर परिसर में चले गए । वहां उपस्थित पुजारी जी ने हम लोगो को भगवान केदारनाथ जी के शीतकालीन  दर्शन कराये तथा हम सभी लोगो के मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाया । मंदिर कमेटी ने मंदिर के फोटो खींचने से मना करने का दिशा निर्देश देता हुआ बोर्ड लगा रखा था इसलिए मंदिर कमेटी के दिशा निर्देशों का शतप्रतिशत पालन किया गया । कुछ देर मंदिर में रुकने के बाद अपने पूर्व निश्चित गंतव्य चोपता की ओर चल दिए । 

ऊखीमठ-चोपता मार्ग पर ही ऊखीमठ से थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ की पहाड़ी पर कुछ किमी० पैदल चल कर देवरिया ताल पहुंचा जा सकता है। देवरिया ताल लगभग २४०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित स्वच्छ पानी का छोटा सा ताल है, जिसके साफ़ पानी में चौखम्बा पर्वत शिखर का प्रतिविम्ब दिखाई पड़ता है । 

ऊखीमठ से चोपता लगभग २६ किमी० दूर ऊखीमठ से २३०० मीटर की ऊँचाई पर है, इसका मतलब आगे सिर्फ चढ़ाई-ही-चढ़ाई थी । अभी १५ किमी० के आस-पास ही चले होंगे देवदार के पेड़ो की श्रृंखला शुरू हो गयी थी । हम लोग काफी ऊँचाई पर आ गए थे । चारो तरफ के पहाड़ों की चोटियों पर सिर्फ बर्फ दिख रही थी । कुछ एक-डेढ़ किमी० और चले होंगे तभी सड़क के किनारे के आस-पास जमी हुयी बर्फ भी दिखने लगी । थोड़ा सा और आगे चलने पर रास्ते में ही कुछ गाड़िया खड़ी हुयी थीं, अपनी कार खड़ी कर जब बाहर निकले तो देखा कि उन गाड़ियों के आगे एक फुट से ज्यादा बर्फ रास्ते पर ही पड़ी हुयी थी, जिसके ऊपर से होकर गाड़िया आगे नहीं जा सकतीं थीं । हम ऊखीमठ से लगभग २० किमी० दूरी पर स्थित दुगलबिट्टा के नजदीक आ गए थे । यह से दुगलबिट्टा एक किमी० ही था । अब आगे कैसे जाया जाय यही विचार कर रहे थे साथ ही रुद्रप्रयाग के होटल कर्मियों की बात याद आ रही थी । तभी दुगलबिट्टा की ओर से कुछ लड़के आ गए, जिनकी गाड़ियां पहले से ही यहां खड़ी हुईं थीं । उनसे आगे के रास्ते के सन्दर्भ में पूछा तो उन्होंने कहा कि..…

"आपको गाड़ी यहीं खड़ी करनी पड़ेगी  आगे  तीन फुट से भी  ज्यादा  बर्फ है "

"लेकिन  मुझे  तो चोपता  जाना  है "

"आप यही से आगे नहीं जा पाएंगे सारा रास्ता बंद है , चोपता तो और ऊँचाई  पर है  वहां तो और ज्यादा बर्फ है , हम लोग खुद चोपता जाने के लिए ही आये थे लेकिन नहीं जा पाये ,आगे यहीं दुगलबिट्टा में एक रिसोर्ट है  वहीँ रात में रुके थे । "

और इतना कह कर वह लोग अपनी गाड़ियां लेकर चले गए । 

हम लोगों ने अपनी कार यहीं पर छोड़ दी पैदल आगे की वास्तविकता का पता करने के लिए चल दिए । सड़क पर जगह-जगह बर्फ पड़ी हुयी थी, जो कि आने-जाने वाले के पैरो के नीचे दब कर मजबूत हो चुकी थी, जिस पर बहुत फिसलन थी । उस फिसलनी बर्फ पर से बड़ा संभल कर निकलना पड़ रहा था, जरा सी लापरवाही पर गिरना निश्चित था । आगे दुगलबिट्टा पहुँच कर देखा तो चारों तरफ सड़क से लेकर पहाड़ों की चोटियों तक बर्फ की मोती चादर बिछी हुयी दिखाई दी। आगे दिख रही सड़क पर तीन फुट से ज्यादा बर्फ पड़ी हुयी थी, जहां से गाड़ी तो क्या पैदल भी जाने में परेशानी होती । वहीं से नीचे की ओर घाटी में एक रिसॉर्ट बनी हुयी थी, जहां रात में रुकने की व्यवस्था थी । 

ड्राइवर प्रदीप और भारद्वाज जी बर्फ को देख कर बहुत उत्साहित थे प्रदीप ने इस तरह फैला बर्फ का साम्राज्य पहली बार देखा था, जिस कारण वह कुछ ज्यादा ही उल्लास में था । दुगलबिट्टा में बहुत शांत वातावरण था, चारो तरफ के नज़ारे मन को प्रफुल्लित कर रहे थे । सभी दिशाओं में विद्यमान क्षितिज को छूते पहाड़ो पर देवदार के पेड़ो की बहुलता थी, विराट हिमालय का नयनाभिराम दृश्य बड़ा ही अलौकिक लग रहा था । मैदानी इलाकों के कोलाहल से दूर सुरम्य हिमालय की वादियां मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ रही थीं । हम लोग बर्फ में आगे कुछ दूरी तक गए, बर्फ बहुत भुरभुरी थी, जिस पर पैर रखते ही एक फुट से ज्यादा नीचे चला जाता था। वहां पर घूमते तथा फोटो लेते हुए हमे लगभग दो घण्टे हो गए थे। चूँकि हमारी मंजिल चोपता थी, जो अब बर्फ की वजह और उत्तराखंड प्रशासन की उदासीनता के कारण भविष्य में होने वाली यात्रा का रूप ले चुकी थी। अब दुगलबिट्टा से वापस घर चलने की बारी थी। अत: सभी लोगो ने विचार किया कि घर "कर्णप्रयाग-रानीखेत-नैनीताल मार्ग" से निकल चलते हैं, देर शाम को गैरसैंण में रुक लेंगे। गैरसैंण में के० एम० वी० एन० का गेस्ट हाउस है, जहां मैं पहले भी एक बार बद्रीनाथ से वापसी में रुक चुका था, यात्रा सीजन न होने के कारण खाली ही मिलेगा।  

कुछ बातें फोटो के माध्यम से भी.…


ऊखीमठ से आगे रस्ते में 

  
दुगलबिट्टा से ऊपर चोपता की तरफ जाती हुयी सड़क पर पड़ी हुयी दिखती बर्फ 

सड़क की किनारे पड़ीं बर्फ पर राजपूत जी और ड्राइवर प्रदीप 

प्रदीप 


राजपूत जी 

सड़क पर बर्फ 

सड़क पर बर्फ लिए खड़ा प्रदीप और दायीं तरफ दिखतीं हिमालय की हिम से लदीं चोटियाँ 
नीचे घाटी में स्थित रिसोर्ट 




बर्फ की दरार में लेते भरद्वाज जी 

राजपूत जी और भारद्वाज जी 








कैमरा ज़ूम मोड पर के खींची फोटो 

अब ये मोटरसाइकिल चलाएगा 

दुगलबिट्टा से घर वापसी 
दुगलबिट्टा से हम लोग चार बजे घर की ओर निकल पड़े।  रस्ते में ऊखीमठ, रुद्रप्रयाग, गौचर होते हुए दुगलबिट्टा से ९२ किमी० दूर कर्णप्रयाग  ७ बजे पहुँच पाये, यहां पिण्डारी ग्लेशियर से निकली पिण्डर नदी अलकनंदा नदी में समा जाती है। कर्णप्रयाग से पहले सड़क तीन भागों में विभक्त होती है, बायीं ओर का रास्ता बद्रीनाथ चला जाता है तथा दायीं ओर का रास्ता बस्ती के बाहर से होता हुआ रानीखेत चला जाता है। सामने वाली सड़क बाजार से होती हुयी रानीखेत मार्ग से मिल जाती है। भूख लग रही थी इसलिए खाने के लिए फल, बिस्किट आदि लेना था जिस कारण हम लोग बाजार होते हुए निकले। फल आदि खाने का सामान लेकर आदिबद्री होते हुए लगभग ४६ किमी० दूर गैरसैंण के लिए रवाना हो गए। कर्णप्रयाग से आगे रास्ता ख़राब था, सड़क कई जगह से उखड़ी हुयी थी। रात में उत्तराखंड के पहाड़ी रास्तो पर आवागमन बहुत काम होता, कर्णप्रयाग से गैरसैंण तक मात्र तीन-चार वाहन ही आते हुए मिले। हम लोग भी आराम से चलते हुए रात ९ बजे कुमायूँ मण्डल विकास निगम के गेस्ट हाउस में पहुँच गए। गेस्ट हाउस पहुँच के फ्रेश हुए उसके बाद खाना खाकर सो गए। अगले दिन सुबह दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, सुबह का नाश्ता गेस्ट हाउस में ही कर द्वाराहाट, रानीखेत, भुवाली, भीमताल, काठगोदाम, हल्द्वानी, बरेली होते हुए रात के १० बजे फर्रुखाबाद आ गए।

कुछ रास्ते के चित्र भी हो जाएं …… 


कर्णप्रयाग से पहले भरद्वाज जी प्रसन्न मुद्रा में 

बायीं ओर प्रवाहित होती अलकनंदा तथा कर्णप्रयाग की ओर जाती हुयी लहराती-बलखाती सड़क 

प्रदीप: एक कुशल पहाड़ी ड्राइवर 

रानीखेत से पहले चीड़ के पेड़ो का नजारा 

किसी गहन सोच में प्रदीप 

श्री भारद्वाज जी रस्ते में पड़े द्वाराहाट कस्बे के बारे में सोचते हुए  

मेरे अभिन्न मित्रों तथा प्रिय पाठकों……! अब हम अपनी "चोपता: एक अधूरी यात्रा" की अन्तिम पोस्ट "दुगलबिट्टा"  के यात्रा वृत्तांत को यहीं पूर्णविराम देते हैं तथा उम्मीद करते हैं आपको यह लेख पसंद आया होगा। आपके सुझावों, कमेन्ट्स का हमें इन्तजार रहेगा। अतः कृपया अपने सुझावों, कमेन्ट्स तथा टिप्पणियां हमें नीचे दर्शित "टिप्पणी बॉक्स" में अवश्य भेजें। आगे भविष्य में किसी अन्य स्थान की यात्रा अवश्य की जाएगी, जिसका यात्रा वृत्तांत "मुसफ़िरनामा"  में शीघ्र ही आपके समक्ष नए अनुभवों, नये आयामों के साथ प्रकाशित किया जायेगा, तब तक के लिए नमस्कार मित्रों…। 
                                                                                                              
इस यात्रा वृत्तांत के लेखों की सूची 
  1. चोपता: एक अधूरी यात्रा 
  2. रुद्रप्रयाग 
  3. दुगलबिट्टा
                                                                                                              

रूद्रप्रयाग

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आपने पिछली पोस्ट "चोपता: एक अधूरी यात्रा"  पढ़ी होगी,  जिसमें  हम लोग देवप्रयाग होते हुए हरिद्वार से १६२ किमी० की दूरी तय करते हुए ०८ मार्च की शाम को रुद्रप्रयाग पहुँच कर एक होटल में कमरा किराये पर लेकर रात्रि विश्राम करने लगे, तक का उल्लेख किया गया है। अब आगे........ 


पहले कुछ रुद्रप्रयाग के बारे में
रुद्रप्रयाग गढ़वाल मण्डल का एक नवसृजित जिला है । जिसका गठन १६ सितम्बर १९९७ को चमोली, पौड़ी एवं टिहरी के कुछ हिस्सों को काट कर किया गया था । यह समुद्रतल से लगभग ९०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है । रुद्रप्रयाग से भगवान शिव जी को समर्पित विश्व प्रसिद्ध श्री केदारनाथ धाम मात्र ८६ किमी० की दूरी पर स्थित है । रुद्रप्रयाग का नाम भगवान शिव की अवतार "रूद्र" के नाम से पड़ा है । पुराणों के अनुसार यहाँ नारद मुनि ने घोर तपस्या कर भगवान शिव जी को प्रसन्न किया किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान शिव जी ने "रूद्र" के अवतार में नारद मुनि को वरदान इसी जगह पर दिया था ।  रुद्रप्रयाग शहर में सभी प्रशासनिक सेवाओं के मुख्यालय स्थित हैं । रुद्रप्रयाग में बद्रीनाथ से आयी अलकनंदा नदी तथा केदारनाथ से आयी मंदाकनी नदी का संगम होता है ।
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०९ मार्च को हम लोग रूद्रप्रयाग में थे, सुबह ०७ बजे जब आँख खुली तो कमरे से बाहर निकल कर देखा तो काफी सर्दी थी, धूप पहाड़ों की चोटियों पर अपने पैर पसारने लगी थी, तभी श्री भारद्वाज जी ने संगम में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की, चूँकि संगम स्थल हमारे होटल से ०२ किमी० दूर रुद्रप्रयाग शहर की तरफ आखिरी छोर पर  था इसलिए वहाँ तक जाने के लिए अपने वाहन का सहारा लेना उचित समझा । हम लोगों ने संगम नहाने के लिए अपने-अपने कपड़े लिए और संगम की ओर चल दिए, जाते-जाते होटल कर्मियों को आलू के पराठें तैयार रखने का आदेश भी दे दिया । होटल से ०२ किमी० दूर रुद्रप्रयाग-केदारनाथ मार्ग पर कुछ दुकानों को पार करते ही एक सुरंग मिलती है सुरंग से निकलते ही बांयी ओर संगम स्थल है । नीचे संगम पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुयी थी। कार को वहीं पर किनारे पर बने एक विश्राम ग्रह के पास पार्क कर सीढ़ियों से नीचे उतर कर एक झूला पुल पार किया और जा पहुँचे संगम स्थल पर। संगम स्थल पर मंदाकनी और अलकनंदा नदियां एक दूसरे से गले मिलकर एक अनोखी  खूबसूरती प्रस्तुत कर रहीं थीं । संगम स्थल पर हम लोगों के आलावा कोई नहीं था । चारो तरफ बड़ा ही मनोरम दृश्य अवलोकित हो रहा था, शांत वातावरण में नदियों के साफ़, स्वच्छ पानी की कल-कल करती हुयी मधुर आवाज आ रही थी, संगम के पानी में जैसे ही नहाने के लिए पैर रखा तो पानी बहुत ठण्डा था । पानी ज्यादा ठण्डा होने के कारण मैंने तो नहाने का विचार त्याग दिया परन्तु उसी ठण्डे पानी में भारद्वाज जी ने काफी देर तक नहाया, तब तक मैं वहीं बैठ कर उस सुरम्य घाटी का दृश्यावलोकन करता रहा । 

भारद्वाज जी के संगम में नहाने के बाद हम लोग वापस होटल आ गए । होटल में आने के बाद मैंने व प्रदीप ड्राईवर ने अपने कमरे के स्नानागार में गीजर के गर्म पानी में नहाया । नहाने के बाद सभी लोग नीचे होटल के रेस्तरां में गए और चाय के साथ भरपेट आलू के परांठे खाए । होटल के कर्मी स्थानीय थे, सो उनसे चोपता के बारे जानकारी करने लगे, तो होटल कर्मियों ने बताया कि.… 

"चोपता के रास्ते में बर्फ मिल सकती है, हो सकता है कि आपकी कार चोपता तक न जा पाये।" 

लेकिन मैंने कहा कि.…

"बर्फ तो जनवरी में पड़ती है फिर भी यदि रास्ते में बर्फ होगी तो प्रशासन द्वारा स्थानीय निवासियों के आने-जाने के लिए रास्ता तो खोला ही गया होगा और चोपता तो एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है, वहां तो सैलानी हर समय आते जाते रहते हैं, इसलिए रास्ता बंद नहीं होगा ।" 

नाश्ता करने के उपरान्त हम लोगों ने कमरे में जाकर अपने कपड़े आदि बैग में रखे और होटल का भुगतान कर चोपता के लिए सुबह १० बजे निकल पड़े । परन्तु मन में शंका उत्पन्न हो गयी की चोपता ३६०० मीटर की ऊंचाई पर है ऐसा न हो की वास्तव में रस्ते में बर्फ मिले । चोपता एक अलग-थलग मार्ग "ऊखीमठ-गोपेश्वर" पर स्थित है, हो सकता है कि वहां प्रशासन रास्ता बंद होने को लेकर ध्यान न देता हो, जिस कारण वहां रास्तों पर अब भी बर्फ जमी हो । दूसरा कारण यह भी था की पहाड़ों पर अब भी ठण्ड में कोई कमी नहीं आयी थी ।

अब फोटो की बारी.......... 

रुद्रप्रयाग संगम पर राजपूत जी 
संगम स्नान को जाते भरद्वाज जी 
स्नानोपरांत 
रुद्रप्रयाग संगम पर राजपूत जी एवं भरद्वाज जी 

विराजमान भरद्वाज जी 

घण्टा बजाते हुए 
पानी का तेज बहाव 


ड्राईवर प्रदीप 



रुद्रप्रयाग संगम 
                                                                                                              
इस यात्रा वृत्तांत के लेखों की सूची 
  1. चोपता : एक अधूरी यात्रा 
  2. रुद्रप्रयाग 
  3. दुगलबिट्टा 
                                                                                                              

गुरुवार, 7 मार्च 2013

चोपता : एक अधूरी यात्रा

मेरे सभी साथियों एवं पाठकों को मेरा प्रणाम....! आपने मेरी पिछली "औली यात्रा"  के वृत्तांतों को अवश्य पढ़ा होगा औली यात्रा करने के बाद मुझे फिर से उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध बुग्याल चोपता जाने का अवसर मिला। यह यात्रा मैंने जल्दबाजी में बिना किसी जानकारी को एकत्र किये बिना मार्च २०१३ में की। मार्च में चोपता के बुग्याल एवं रस्ते बर्फ से ढंके होते है जिस की जानकारी मुझे चोपता जाने के बाद हुयी। बर्फ से बंद रास्तों की वजह से चोपता नहीं पहुँच पाये इसलिए इस यात्रा वृत्तांत को पढ़ने से पहले यह समझ लें इसमें चोपता की वादियों, बुग्यालों की बातें तो अवश्य मिलेंगी परन्तु चोपता की हसीन वादियों का लुत्फ़ नहीं मिलेगा। इसलिए ही इस यात्रा शीर्षक को मेरे द्वारा "चोपता: एक अधूरी यात्रा" का नाम दिया गया है। अतः "चोपता: एक अधूरी यात्रा" के संस्मरणों का उल्लेख अपने इस प्रसिद्धि प्राप्त हिन्दी ब्लॉग "मुसाफिरनामा" के माध्यम से इस उम्मीद के साथ आपके सम्मुख रखने का शुभारम्भ करने जा रहा हूँ कि आपको जरूर पसंद आएगा। 

अब यात्रा वृत्तांत पर चले हैं.…!  
फ़रवरी माह था सर्दी का मौसम समाप्ति की ओर था, इधर मुझे कही किसी यात्रा पर गए हुए काफी दिन हो गए थे, मुझे हमेशा ही हिमालय के पहाड़ अपनी ओर आकर्षित करते रहे है, जिस कारण इस बार भी मन ने आदेश किया कि "हिमालय " चलो। संयोग से हरिद्वार में एक निजी कार्य भी पड़ गया, बस अब तो निश्चित हो गया कि उत्तराखंड के किसी शांत पहाड़ी स्थल पर चला जाय.……? चोपता … ! एक दम दिमाग में आया। बस फिर क्या था चोपता के हरे-भरे बुग्यालों बीच जीवन के चंद दिन बिताना पक्का हुआ, इधर होली का त्यौहार भी नजदीक था, इसलिए होली के बाद जाने का निर्णय लिया। चोपता चलने के लिए अपने एक सहकर्मी मित्र श्री चंद्रप्रकाश भारद्वाज जी से कहा तो उन्होंने भी हाँ कर दी.… तारीख तय हुई ०७  मार्च २०१३। अपने ड्राइवर प्रदीप को बता दिया गया कि ०७ मार्च को हरिद्वार चलना है तथा  उसके बाद अगले तीन-चार दिनों की यात्रा करेंगे जो पूरी पहाड़ी रास्तो पर होगी। अत: गाड़ी के ब्रेक, हॉर्न आदि सर्विस सेंटर पर दिखा लेना  ताकि ऊपर रास्ते में कही कोई समस्या न खड़ी हो। हरिद्वार में भी हर की पौड़ी के नजदीक के एक होटल में ०७ मार्च के लिए एक कमरा भी बुक करा दिया गया। 

आखिर ०७ मार्च आ ही गयी और अपने मित्र को लेकर दोपहर बाद ३.०० बजे फर्रुखाबाद से चल दिए, दूरी लगभग ३७० किलोमीटर की थी, फिर भी बरेली, रामपुर, मुरादाबाद के जामो को झेलते हुए रात ९.०० बजे हरिद्वार से लगभग बीस कि०मी० पहले ढाबे पर  खाना खाने के लिए गाड़ी को रोका। खाना खाने के बाद १०.०० बजे हम लोग हरिद्वार की ओर बढ़े और रात को १०.३० बजे हरिद्वार पहुँच गए। गाड़ी को हर की पौड़ी पर पार्किंग में खड़ी कर पहले से बुक कराये गए होटल में अपने कमरे में पहुँच गए। चूँकि खाना अभी कुछ देर पहले ही ढाबा पर खाया था इसलिए बस सोना ही शेष रह गया था। कमरे में एक डबल-बेड पड़ा था हम तीनो लोग उसी बेड पर सोने का उपक्रम करने लगे। 

अगले दिन सुबह नित्यक्रम से निवृत्त होकर १०.०० बजे तक अपना निजी कार्य निबटाया फिर हर की पौड़ी के पीछे वाली सड़क पर बने हुए अनेकों रेस्त्रां में से एक ठीक-ठाक रेस्त्रां में आलू के दो-दो परांठे दही और आचार के साथ खाए फिर अपने होटल के कमरे से अपना सामान लिया और होटल वाले का बाकी भुगतान कर पार्किंग में खड़ी अपनी कार लेकर चोपता के लिए ११.०० बजे प्रस्थान कर दिया। 

पहले कुछ चोपता के बारे में 
चोपता अपने हरे-भरे बुग्यालों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। ( बुग्याल : पहाड़ की ढलानों पर स्थित हरे-भरे घास के मैदानों को कहते हैं )  सर्दियों में चोपता के बुग्याल बर्फ की मोटी चादर से ढक जाते हैं तथा गर्मी शुरू होते ही बर्फ पिघलना शुरू हो जाती है, जिस कारण हरा-भरा बुग्याल अपनी असीम सुंदरता के साथ मनमोहक हो जाता है। शांत वातावरण में चोपता के बुग्याल अत्यन्त मनोहारी दृश्य उत्पन्न करते हैं। चारो तरफ बर्फ से लकदक पहाड़ों की  चोटियाँ मन को शीतलता प्रदान करती हैं। चोपता के पास में ही तीन किलोमीटर ट्रेकिंग के बाद विश्व में सबसे ऊपर स्थित तुंगनाथ महादेव का विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। चारधाम यात्रा (यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ यात्रा) के समय में यहाँ श्रद्धालुओं का आना-जाना काफी संख्या में होता है। चोपता में प्रकृति से एकाकार होते हुए तुंगनाथ महादेव मन्दिर में दर्शन करने से श्रद्धा की भी पूर्ति हो जाती है। चोपता समुद्रतल से लगभग ३६०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। 
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हमारी कार अब नेशनल हाइवे संख्या -५८ पर चल रही थी, जो देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग तथा चमोली होते हुए बद्रीनाथ तक जाता है। प्रदीप काफी कुशलता कार को चला रहे थे। प्रदीप पहले भी मेरे साथ एक बार वर्ष २०१२ में देवप्रयाग तक आ चुके थे, यह प्रदीप का पहाड़ी रास्तों पर कार चलाने का दूसरा अनुभव था। ऋषिकेश तक काफी भारी ट्रैफिक रहता है तथा ऋषिकेश से ही पहाड़ी रास्ता  शुरू हो जाता है। हम लोग गंगा नदी की किनारे-किनारे शिवपुरी, ब्यासी होते हुए हरिद्वार से ९४ कि०मी० दूर देवप्रयाग २.३० बजे पहुँच गए। देवप्रयाग में बद्रीनाथ से आने  वाली अलकनन्दा नदी एवं गंगोत्री से आने वाली भागीरथी नदी का संगम होता है। श्री भारद्वाज जी ने संगम स्थल देखने की इच्छा व्यक्त की, तो कार सड़क  के किनारे पार्क कर हम लोग झूलापुल से होते हुए नीचे संगम स्थल पर पहुँच गए। भागीरथी का चंचल शोर और अलकनन्दा का शांत स्वरूप एक दूसरे में समाहित हो मोक्षदायनी गंगा नदी में परिवर्तित हो कर जनमानस की प्यास बुझाने हेतु निरंतर प्रवाहित हो रहा था, जो बहुत ही सुन्दर लग रहा था। भीड़-भाड़ नहीं थी बस एक पंडित जी अपनी थाली में चन्दन, रोली लिए पास की गुफा के बाहर बैठे थे, जो स्नान करने वालों के माथे पर तिलक  लगा रहे थे। लगभग एक घंटा रुकने के पश्चात् ३.३० बजे अपने गंतव्य की ओर चल पड़े।  

अब हम लोग अलकनन्दा नदी के साथ-साथ चल रहे थे, लगभग ३० कि०मी० दूर शाम ५.०० बजे श्रीनगर पहुंचे। श्रीनगर से  रास्ते में खाने के लिए कुछ चिप्स, बिस्किट आदि लिए और रुद्रपयाग के लिए निकल पड़े। श्रीनगर अलकनंदा नदी के तट पर बसा हुआ गढ़वाल का सबसे बड़ा शहर है तथा शिक्षा का केन्द्र भी है। यहां हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय है। यह समुद्रतल से ५६० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है तथा यह पौड़ी गढ़वाल जिले में आता है। श्रीनगर से रुद्रप्रयाग की दूरी लगभग ३५ कि०मी० है और रास्ता भी अच्छा नहीं है इसलिए शाम ७.०० बजे के आस-पास हम लोग  रुद्रप्रयाग के नजदीक पहुँच गए। चूँकि अभी मार्च के शुरूआती दिन ही थे इसलिए रुद्रप्रयाग में काफी सर्दी थी फुल स्वेटर सभी लोगो ने पहन रखे थे। रुद्रप्रयाग से एक कि०मी० पहले पांच-छ: होटल सड़क के किनारे बने हुए थे जो बाहर से देखने में ठीक-ठाक लग रहे थे।अपनी कार वहीं रोक ली। यात्रा सीजन न होने के कारण सभी खाली थे ।  मोल-भाव कर एक अच्छे से होटल में बहुत ही कम किराये पर दो डबल बेड का एक कमरा लिया, जिसमें गीज़र सहित सारी सुविधाये उपलब्ध थीं। कितने पर लिया गया यह नहीं बताऊंगा….... चारो धामों के कपाट खुलने के बाद यात्रा सीजन पर यही कमरा कम-से-कम २५००.०० रूपये पर मिलेगा। होटल के  नीचे ही रेस्त्रां भी था। हम तीन लोगो के आलावा दो बैंककर्मी भी होटल में रुके हुए थे, जो वहीं कहीं आस-पास की शाखाओं में कार्यरत थे और बातचीत से दिल्लीवासी होने का आभास दे रहे थे अथवा होंगे लेकिन मुझे क्या....? होटल के कर्मचारियों से खाने के सम्बन्ध में पूछा तो बताया कि........ 

"नीचे रेस्त्रां में खाना चाहिए तो अभी बता दीजिये, यात्रा सीजन नहीं है इसलिए आटा, दाल, सब्जी आदि सामान होटल में मौजूद नहीं है, खाना बनाने के लिए आटा, दाल शहर के अन्दर बाजार से लानी पड़ेगी.......! नहीं तो आप लोगो को अन्दर बाजार में जाकर खाना मिलेगा"। 

रुद्रप्रयाग का बाजार यहाँ से डेढ़ किमी० दूर था, सर्दी भी खूब थी और दिन भर सफ़र करने के कारण थकावट भी लग रही थी इसलिए अन्दर शहर में जाकर खाना खाने की हिम्मत नहीं बची थी। अत: हम लोगों ने सादा भोजन बनाने के लिए आदेश उसी होटल कर्मी को दिया और अपने कमरे में फ्रेश होने चले गए। रात को ९ बजे होटल कर्मी ने खाना खाने के लिए दरवाजा खटखटाया और कहा कि..... 

"खाना तैयार है खाना खा लीजिये चल कर"

दाल-रोटी खाए २४ घंटे हो गए थे, हरिद्वार में सुबह दो-दो पराठे ही सभी ने खाए थे तब से चिप्स और बिस्किट से ही काम चला रहे थे। दाल रोटी सामने देख कर अब रुका नहीं जा रहा था, तत्काल खाने का नम्बर लगा दिया जब पेट भर गया तब सुकून आया। खाना खाने के बाद हम लोग सोने के लिए कमरे में चले गए।  

अब चित्रावली भी हो जाय ……… 


ब्यासी के निकट गंगा जी पर बना एक झूला पल 
ऊपर सड़क से दिखता देवप्रयाग संगम

देवप्रयाग संगम पर भारद्वाज जी 
भारद्वाज जी 
भारद्वाज जी एवं प्रदीप 
एक फोटो राजपूत जी की भी हो जाय 
ऊपर दिखते इसी झूलापुल से होकर संगम तक आये 

राजपूत जी और भारद्वाज जी 
तिलक लगवाने की फीस निकालते भारद्वाज जी 
वर्ष २०१२ की एक मात्र फोटो: राजपूत जी साथ में प्रदीप 
  अगले भाग में जारी...
                                                                                                              
इस यात्रा वृत्तांत के लेखों की सूची
  1. चोपता : एक अधूरी यात्रा 
  2. रुद्रप्रयाग 
  3. दुगलबिट्टा